27 जून 2010

भूतकाल की राजनीति का नवीन संस्करण हैं : धर्म अथवा संप्रदाय

                                                                                             -डॉ० डंडा लखनवी

चुनाव जब-जब निकट आते हैं धर्म और जातियों पर खूब चर्चाएं होती हैं। धर्मवाद और जातिवाद कोसते हुए भी अनेक व्यक्ति प्राय: मिल जाते हैं परन्तु उनका सारा का सारा आक्रोश क्षणिक रहता है। इस समस्या के तह में जाने और उसके उन्मूलन हेतु वे उतने गंभीर प्रयास नहीं करते जितनी गंभीरता से किया जाना चाहिए। और ज्यों ही चुनाव समाप्त हो जाता है वे इस विषय पर चर्चा करना छोड़ देते हैं। सभी मानते हैं कि जातिवाद भारतीय समाज का कोढ़ है। कुछ लोग इसे राजनीति की उपज मानते हैं। एक प्रकार से यह राजनीति की उपज है-भी। क्योंकि वास्तविक रूप में धर्म अथवा संप्रदाय भूतकाल की राजनीति है। इसे उसका नवीन संस्करण भी कह सकते हैं। कालांतर लोग उस राजनीति को धर्म रूप में स्वीकार लेते हैं। 

अतएव जातिवाद के वायरस धार्मिक व्यवस्था की देन हैं। धर्म की राजनीति करने वाले भली-भांति जानते हैं कि जातियाँ रहेंगी तो समाज छोटे-छोटे टुकड़ों मे बटा रहेगा और उस पर अपना दबदबा कायम रखना आसान होगा। यह फूट डालो और राज करो वाली नीति नहीं  है तो क्या है?  आदिवासी भी उसी व्यवस्था के अंश हैं।

महाकाव्यों में श्रीराम के युग में "शबरी" और श्रीकृष्ण के युग में "एकलव्य" के आदिवासी चरित्रों का उल्लेख मिलता है। तब भी उनकी दशा दयनीय थी और आज उनके वंशजों की दशा दयनीय  है। हजारों वर्षों बाद भी हम उन्हें मुख्य धारा के समकक्ष नहीं ला सके। आदिवासी बहुल क्षेत्र की भूमि खनिज-संपदा का दोहन किया जाता रहा। उस क्षेत्र के वन बराबर कटते रहे। उनके क्षेत्र का दायरा धीरे-धीरे घटता रहा। आदिवासी क्षेत्र से अर्जित राजस्व का कितना अंश उस क्षेत्र के विकास पर व्यय किया गया है। इसकी पोल वहाँ रहने वाले लोगों के रहन-सहन के स्तर को देख कर स्वत: खुल जाती है। यह विसमतावादी सामाजिक व्यवस्था का आइना है। इस ओर विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। जब तक धार्मिक सत्ता का वर्तमान स्वरूप रहेगा इस बीमारी से मुक्ति कठिन है। रोग की जड़ जहाँ है उपचार भी वहीं से प्रारंभ होना चाहिए। आज देश को समतावादी धार्मिक एवं राजनैतिक व्यवस्था की आवश्यकता है। यह परिवर्तन जितनी जल्दी होगा देश और समाज के लिए उतना ही हितकर होगा।


1 टिप्पणी:

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